दिल से निकल न पाएगी मौज-ए-हवस कि बस
इस तरह खींचती है ये तार-ए-नफ़स कि बस
फिर यूँ हुआ कि रौशनी नाज़िल हुई वहाँ
फिर देखते ही खुल गया चाक क़फ़स कि बस
मैं बर्फ़ की चटान हूँ तू गर्म-रौ चराग़
मत पूछ मुझ पे क्या है तिरी दस्तरस कि बस
दम-साज़ तो बहुत हैं कोई शनास हो
कोई तपिश सी है तह-ए-मौज-ए-नफ़स कि बस
सहरा मिरे मिज़ाज का हिस्सा है फिर भी आज
इक अब्र-ज़ाद ने किया इस तरह मस कि बस

ग़ज़ल
दिल से निकल न पाएगी मौज-ए-हवस कि बस
याह्या ख़ान यूसुफ़ ज़ई