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दिल से निकल न पाएगी मौज-ए-हवस कि बस | शाही शायरी
dil se nikal na paegi mauj-e-hawas ki bas

ग़ज़ल

दिल से निकल न पाएगी मौज-ए-हवस कि बस

याह्या ख़ान यूसुफ़ ज़ई

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दिल से निकल न पाएगी मौज-ए-हवस कि बस
इस तरह खींचती है ये तार-ए-नफ़स कि बस

फिर यूँ हुआ कि रौशनी नाज़िल हुई वहाँ
फिर देखते ही खुल गया चाक क़फ़स कि बस

मैं बर्फ़ की चटान हूँ तू गर्म-रौ चराग़
मत पूछ मुझ पे क्या है तिरी दस्तरस कि बस

दम-साज़ तो बहुत हैं कोई शनास हो
कोई तपिश सी है तह-ए-मौज-ए-नफ़स कि बस

सहरा मिरे मिज़ाज का हिस्सा है फिर भी आज
इक अब्र-ज़ाद ने किया इस तरह मस कि बस