दिल से बे-सूद और जाँ से ख़राब
हो रहा हूँ कहाँ कहाँ से ख़राब
ग़म की दहलीज़ है भली कितनी
कोई उठता नहीं यहाँ से ख़राब
मैं मिरा अक्स और आईना
ये नज़ारा था दरमियाँ से ख़राब
ख़ुद को ता'मीर करते करते मैं
हो गया हूँ यहाँ वहाँ से ख़राब
रौशनी इक हक़ीर तारे की
आ गई हो के कहकशाँ से ख़राब
ज़ेर-ए-लब रख छुपा के नाम उस का
लफ़्ज़ होते हैं कुछ बयाँ से ख़राब
एक मुद्दत से हूँ मैं मुंकिर-ए-इश्क़
आ मुझे कर दे अपनी हाँ से ख़राब
रंग निखरे हैं फिर वहीं पे 'बकुल'
मेरी तस्वीर थी जहाँ से ख़राब
ग़ज़ल
दिल से बे-सूद और जाँ से ख़राब
बकुल देव