दिल संग नहीं है कि सितमगर न भर आता
करते न अगर ज़ब्त तो मुँह तक जिगर आता
तू फ़ातिहा-ख़्वानी को अगर क़ब्र पर आता
मरने से मिरे ग़ैर का मतलब न बर आता
ऐ क़ैस अगर दश्त में तू राह पर आता
सौ बार तुझे नाक़ा-ए-लैला नज़र आता
तख़सीस न थी तूर की ऐ हज़रत-ए-मूसा
हर संग में वो नूर-ए-तजल्ली नज़र आता
होती चमन-आरा-ए-अज़ल की जो मशिय्यत
अपने शजर-ए-इश्क़ का वक़्त-ए-समर आता
बे-कार न कर रात बसर मुंतज़री में
आना उसे होता तो वो अब तक 'असर' आता
ग़ज़ल
दिल संग नहीं है कि सितमगर न भर आता
इम्दाद इमाम असर