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दिल परस्तार हैं सब ख़ल्क़ के मूरत की तिरी | शाही शायरी
dil parastar hain sab KHalq ke murat ki teri

ग़ज़ल

दिल परस्तार हैं सब ख़ल्क़ के मूरत की तिरी

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार

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दिल परस्तार हैं सब ख़ल्क़ के मूरत की तिरी
दीदा हैं क़िबला-नुमा काबा-ए-सूरत की तिरी

ग़ैर के वास्ते पकड़े है तू हर दम सौ बार
मुतहम्मिल नहीं हम ऐसे कुदूरत की तिरी

बुल-हवस जान नहीं खोने के ख़ातिर से तिरी
हम हैं सर देने को हैं वक़्त-ए-ज़रूरत की तिरी

मुसहफ़-ए-हुस्न है लो मुखड़ा तिरा है वश्शमस
याद रहती है मुझे नित उसी सूरत की तिरी

नईं परस्तिश से 'जहाँदार' की तू ख़ुश वर्ना
दिल परस्तार हैं सब ख़ल्क़ के मूरत की तिरी