दिल-ओ-निगाह को वीरान कर दिया मैं ने
शिकस्त-ए-ख़्वाब का एलान कर दिया मैं ने
जो तीर आए थे उस की तरफ़ से सीने पर
सजा के ज़ख़्मों का गुल-दान कर दिया मैं ने
ग़मों का ताज मिरे सर पे जब से रक्खा है
ख़ुद अपने आप को सुल्तान कर दिया मैं ने
न कोई फूल ही रखा न आरज़ू न चराग़
तमाम घर को बयाबान कर दिया मैं ने
वो चाहता था कि सब कुछ लुटा के ज़िंदा रहूँ
लो आज पूरा ये अरमान कर दिया मैं ने
मैं ज़द पे तीरों के ख़ुद आ गया हूँ आज 'ज़फ़र'
तिरे निशाने को आसान कर दिया मैं ने
ग़ज़ल
दिल-ओ-निगाह को वीरान कर दिया मैं ने
ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र