दिल ने इमदाद कभी हस्ब-ए-ज़रूरत नहीं दी
दश्त में अक़्ल न दी शहर में वहशत नहीं दी
इश्क़ तू आज भी है किस के लहू से सरसब्ज़
किस मुहिम के लिए हम ने तुझे उजरत नहीं दी
धूप बोली कि मैं आबाई वतन हूँ तेरा
मैं ने फिर साया-ए-दीवार को ज़हमत नहीं दी
इश्क़ में एक बड़ा ज़ुल्म है साबित-क़दमी
वक़्त ने भी हमें इस बाब में क़ुदरत नहीं दी
सर सलामत लिए लौट आए गली से उस की
यार ने हम को कोई ढंग की ख़िदमत नहीं दी
कौन सी ऐसी ख़ुशी है जो मिली हो इक बार
और ता-उम्र हमें जिस ने अज़िय्यत नहीं दी
अहल-ए-दिल ने कभी मख़लूत हुकूमत न बनाई
अक़्ल वालों ने भी बे-शर्त हिमायत नहीं दी
'फ़रहत-एहसास' तो हम ख़ुद ही बने हैं वर्ना
फ़रहत-उल्लाह ने कभी इस की इजाज़त नहीं दी
ग़ज़ल
दिल ने इमदाद कभी हस्ब-ए-ज़रूरत नहीं दी
फ़रहत एहसास