दिल मुझे कुफ़्र आश्ना न करे
बंदा बुत का हूँ मैं ख़ुदा न करे
काटती है पतंग ग़ैरों की
हम से तक्कल तिरे उड़ा न करे
सुल्ह मंज़ूर है अगर तुम को
आँख अग़्यार से लड़ा न करे
क्यूँ न आँचल दुपट्टे का लटके
हो परी-ज़ाद पर लगा न करे
है वो बुत अब तो महव-ए-यकताई
डर ख़ुदा का न हो तो क्या न करे
पढ़े 'नादिर' जो शेर-ए-तर्ज़-ए-जदीद
सुन के क्यूँ ख़ल्क़ वाह-वा न करे
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ग़ज़ल
दिल मुझे कुफ़्र आश्ना न करे
नादिर लखनवी