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दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें | शाही शायरी
dil mein utri hai nigah rah gain bahar palken

ग़ज़ल

दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

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दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
क्या ख़दंग-ए-निगह-ए-यार की हैं पर पलकें

फ़र्त-ए-हैरत से ये बे-हिस हैं सरासर पलकें
कि हुईं आइना-ए-चश्म की जौहर पलकें

ये दराज़ी है कि वो शोख़ जिधर आँख उठाए
जा पहुँचती हैं निगाहों के बराबर पलकें

क्या तमाशा है कि डाले मिरे दिल में सूराख़
और ख़ूँ में न हुईं उन की कभी तर पलकें

नर्गिस उस ग़ैरत-ए-गुल-ज़ार से क्या आँख मिलाए
आँख भी वो कि नहीं जिस को मयस्सर पलकें

है ग़म-ए-मर्ग-ए-अदू भी बुत-ए-काफ़िर का बनाव
क़तरा-ए-अश्क से हैं रिश्ता-ए-गौहर पलकें

चाट देता है तिरा दिल उन्हें ख़ूँ-रेज़ी की
तेज़ करती हैं इसी संग पे ख़ंजर पलकें

ली गईं दिल को वो दुज़्दीदा निगाहें अब याँ
क्या धरा है जो चढ़ा लाती हैं लश्कर पलकें

कीना कुछ शर्त नहीं उन की दिल-आज़ारी को
नीश-ए-अक़रब हैं तिरी शोख़ सितम कर पलकें

है यही गिर्या-ए-ख़ूनीं तो किसी दिन 'नाज़िम'
यूँ ही रह जाएँगी आपस में झपक कर पलकें