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दिल में है तलब और दुआ और तरह की | शाही शायरी
dil mein hai talab aur dua aur tarah ki

ग़ज़ल

दिल में है तलब और दुआ और तरह की

बुशरा एजाज़

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दिल में है तलब और दुआ और तरह की
है ख़ाक-नशीनी की सज़ा और तरह की

जब राख से उट्ठेगा कभी इश्क़ का शोला
फिर पाएगी ये ख़ाक शिफ़ा और तरह की

जाते हुए मौसम की तो पहचान यही है
दस्तक में मुझे देगा सदा और तरह की

है हिज्र का पैराया-ए-फ़न और तरह का
और वस्ल-कहानी है ज़रा और तरह की

शब भी है वही हम भी वही तुम भी वही हो
है अब के मगर अपनी सज़ा और तरह की