दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है
हम भी ये समझते हैं कि जी है तो जहाँ है
हर एक के दुख-दर्द का अब ज़िक्र-ओ-बयाँ है
मुझ को भी हो रुख़्सत मिरे भी मुँह में ज़बाँ है
इस इश्क़ के है तू ही सज़ा-वार कि हर एक
दिल दे के तिरे नाम को जूया-ए-निशाँ है
जूइन्दा-ए-हर-चीज़ है याबिंदा जहाँ में
जुज़ उम्र-ए-गुज़िश्ता कि वो ढूँडो तो कहाँ है
पीरी जो तू जावे तो जवानी से ये कहना
ख़ुश रहियो मरी जान तू जीधर है जहाँ है
पहुँचा न कोई मुर्ग़ कभू अपने चमन तक
जुज़ ताइर-ए-हसरत कि वो याँ बाल-फ़िशाँ है
तुझ से तो किसू तरह मिरा कुछ नहीं चलता
जुज़ ख़ून कि आँखों से शब ओ रोज़ रवाँ है
साक़ी तू नज़र कीजियो टुक सुब्ह-ए-चमन को
इस पीर के जल्वे का भला कोई जवाँ है
'सौदा' का तिरे दश्त में तिफ़्लाँ से है ये हाल
जीधर वो खड़ा होवे तो जूँ संग-ए-निशाँ है
ग़ज़ल
दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है
मोहम्मद रफ़ी सौदा