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दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है | शाही शायरी
dil le ke hamara jo koi talib-e-jaan hai

ग़ज़ल

दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है

मोहम्मद रफ़ी सौदा

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दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है
हम भी ये समझते हैं कि जी है तो जहाँ है

हर एक के दुख-दर्द का अब ज़िक्र-ओ-बयाँ है
मुझ को भी हो रुख़्सत मिरे भी मुँह में ज़बाँ है

इस इश्क़ के है तू ही सज़ा-वार कि हर एक
दिल दे के तिरे नाम को जूया-ए-निशाँ है

जूइन्दा-ए-हर-चीज़ है याबिंदा जहाँ में
जुज़ उम्र-ए-गुज़िश्ता कि वो ढूँडो तो कहाँ है

पीरी जो तू जावे तो जवानी से ये कहना
ख़ुश रहियो मरी जान तू जीधर है जहाँ है

पहुँचा न कोई मुर्ग़ कभू अपने चमन तक
जुज़ ताइर-ए-हसरत कि वो याँ बाल-फ़िशाँ है

तुझ से तो किसू तरह मिरा कुछ नहीं चलता
जुज़ ख़ून कि आँखों से शब ओ रोज़ रवाँ है

साक़ी तू नज़र कीजियो टुक सुब्ह-ए-चमन को
इस पीर के जल्वे का भला कोई जवाँ है

'सौदा' का तिरे दश्त में तिफ़्लाँ से है ये हाल
जीधर वो खड़ा होवे तो जूँ संग-ए-निशाँ है