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दिल-लगी बाद-ए-ख़िज़ाँ कर ले गुलिस्तानों के साथ | शाही शायरी
dil-lagi baad-e-KHizan kar le gulistanon ke sath

ग़ज़ल

दिल-लगी बाद-ए-ख़िज़ाँ कर ले गुलिस्तानों के साथ

मंज़ूर अहमद मंज़ूर

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दिल-लगी बाद-ए-ख़िज़ाँ कर ले गुलिस्तानों के साथ
हो चले हैं हम भी कुछ मानूस वीरानों के साथ

हश्र से कुछ कम न थी गुज़री जो ऐ रब्ब-ए-जलील
तेरे इंसानों के हाथों तेरे इंसानों के साथ

अक़्ल जब रुक जाए तो लाज़िम है महमेज़-ए-जुनूँ
कोई दीवाना भी होता काश फ़र्ज़ानों के साथ

ज़ोर पर है ज़ोहद के पर्दे में जंग-ए-ज़र-गरी
शो'बदा-बाज़ी वही है सादा ईमानों के साथ

पस्तियों के साए बढ़ कर चोटियों पर छा गए
झोंपड़े टकरा गए 'मंज़ूर' ऐवानों के साथ