दिल-लगी अपनी तिरे ज़िक्र से किस रात न थी
सुब्ह तक शाम से या-हू के सिवा बात न थी
इल्तिजा तुझ से कब ऐ क़िबला-ए-हाजात न थी
तेरी दरगाह में किस रोज़ मुनाजात न थी
अब मुलाक़ात हुई है तो मुलाक़ात रहे
न मुलाक़ात थी जब तक कि मुलाक़ात न थी
ग़ुंचा-ए-गुल को न हँसना था तिरी सूरत से
छोटे से मुँह की सज़ा-वार बड़ी बात न थी
इब्तिदा से तुझे मौजूद समझता था मैं
मिरे तेरे कभी पर्दे की मुलाक़ात न थी
ऐ नसीम-ए-सहरी बहर-ए-असीरान-ए-क़फ़स
तोहफ़ा-तर निकहत-ए-गुल से कोई सौग़ात न थी
उन दिनों इश्क़ रुलाता था हमें सूरत-ए-अब्र
कौन सी फ़स्ल थी वो जिस में कि बरसात न थी
क्या कहूँ उस के जो मुझ पर करम-ए-पिन्हाँ थे
ज़ाहिरी यार से हर-चंद मुलाक़ात न थी
अपने बाँधे होए गाती तुझे देखा फड़का
दिलरुबा शय थी मिरी जान तिरी गात न थी
इक में मिल गए ऐ शाह-सवार अहल-ए-नियाज़
नाज़-ए-माशूक़ था तू सुन की तिरे लात न थी
लब के बोसे का है इंकार तअज्जुब ऐ यार
फेरे साइल से जो मुँह को वो तिरी ज़ात न थी
कमर-ए-यार थी अज़-बस-कि निहायत नाज़ुक
सूझती बंदिश-ए-मज़मूँ की कोई घात न थी
उन दिनों होता था तू घर में हमारे शब-बाश
रोज़-ए-रौशन से कम ऐ मेहर-ए-लिक़ा रात न थी
बे-शुऊरों ने न समझा तो न समझा 'आतिश'
नुक्ता-संजों को लतीफ़ा थी तिरी बात न थी
ग़ज़ल
दिल-लगी अपनी तिरे ज़िक्र से किस रात न थी
हैदर अली आतिश