दिल को तिरे ख़याल से बहला रहा हूँ मैं
यूँ शाम-ए-ग़म को सुब्ह किए जा रहा हूँ मैं
वाक़िफ़ हूँ मेरी राह की मंज़िल नहीं कोई
दीवाना-वार फिर भी बढ़े जा रहा हूँ मैं
मैं कह रहा ठहरिए कि ऐसा भी क्या सितम
वो कह रहे हैं छोड़िए अब जा रहा हूँ मैं
सच है किसी सनम की इबादत गुनाह है
फिर भी हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
जो कुछ दिया है तेरे मुक़द्दस ख़याल ने
इस लज़्ज़त-ए-दवाम को लौटा रहा हूँ मैं
कल तक मुख़ालिफ़ीन के चर्चे थे हर तरफ़
हर बज़्म अहल-ए-ज़ौक़ पे अब छा रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
दिल को तिरे ख़याल से बहला रहा हूँ मैं
मजीद मैमन