दिल को रहीन-ए-लज़्ज़त-ए-दरमाँ न कर सके
हम उन से भी शिकायत-ए-हिज्राँ न कर सके
इस तरह फूँक मेरा गुलिस्तान-ए-आरज़ू
फिर कोई तेरे बा'द इसे वीराँ न कर सके
महँगी थी इस क़दर तिरे जल्वों की रौशनी
हम अपनी एक शाम फ़िरोज़ाँ न कर सके
बिछड़े रहे तो और भी रुस्वा करेंगे लोग
तुम भी इलाज-ए-गर्दिश-ए-दौराँ न कर सके
दिल उन के हाथ से भी गया हम से भी गया
शायद वो पास-ए-ख़ातिर-ए-मेहमाँ न कर सके
उन पर भी आश्कार हो क्यूँ अपने दिल का हाल
हम इस मता-ए-दर्द को अर्ज़ां न कर सके
'आज़म' हज़ार बार लुटे राह-ए-इश्क़ में
लेकिन कभी शिकायत-ए-दौराँ न कर सके
ग़ज़ल
दिल को रहीन-ए-लज़्ज़त-ए-दरमाँ न कर सके
आज़म चिश्ती