दिल को रह-ए-हयात में उलझा रहा हूँ मैं
कैसे भी अपने-आप को बहला रहा हूँ मैं
रख कर के थोड़ी दूर किनारे पे ये बदन
दरिया के साथ साथ बहा जा रहा हूँ मैं
खिड़की पे एक बार तो आ जा कि देख लूँ
जाना तुम्हारे शहर से अब जा रहा हूँ मैं
मतलब यही हुआ कि मिरा भी वजूद है
उस आईना में साफ़ नज़र आ रहा हूँ मैं
एरिया पड़ा हुआ हूँ मैं गर्द-ए-ज़मीन पर
मिट्टी में तिरे लम्स को दफ़ना रहा हूँ मैं
चाहा था तुझ को पाँव में क़िस्मत से जीत कर
क़िस्मत से मिल गए हो सो ठुकरा रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
दिल को रह-ए-हयात में उलझा रहा हूँ मैं
कुलदीप कुमार