दिल को हर गाम पे धड़के से लगे रहते हैं
तुझ को खो देने के ख़दशे से लगे रहते हैं
सर तो कट जाते हैं जिस्मों से मगर सदियों तक
ख़ाक पर ख़ून के धब्बे से लगे रहते हैं
झाड़ पोंछ एक मिरे काम नहीं आ पाई
दर-ओ-दीवार पे जाले से लगे रहते हैं
प्यास उड़ती है लब-ए-हिज्र पे मानिंद-ए-ग़ुबार
वस्ल की झील पे पहरे से लगे रहते हैं
दश्त से शहर में तन्हाई के डर ले आए
शहर में भी यही खटके से लगे रहते हैं
ख़्वाब जो देखा नहीं हम ने सर-ए-ख़्वाब 'नजीब'
इस की ताबीर के धड़के से लगे रहते हैं
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ग़ज़ल
दिल को हर गाम पे धड़के से लगे रहते हैं
नजीब अहमद