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दिल को हलाक-ए-जल्वा-ए-जानाँ बनाइए | शाही शायरी
dil ko halak-e-jalwa-e-jaanan banaiye

ग़ज़ल

दिल को हलाक-ए-जल्वा-ए-जानाँ बनाइए

मोहम्मद अली जौहर

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दिल को हलाक-ए-जल्वा-ए-जानाँ बनाइए
इस बुत-कदे को काबा-ए-ईमाँ बनाइए

तूफ़ान बन के उठिए जहान-ए-ख़राब में
हस्ती को इक शरारा-ए-रक़्साँ बनाइए

दौड़ाइए वो रूह कि हर ज़र्रा जाग उठे
उजड़े हुए वतन को गुलिस्ताँ बनाइए

फिर दीजिए निगाह को पैग़ाम-ए-जुस्तुजू
मंज़िल से क्यूँ नज़र को गुरेज़ाँ बनाइए

आख़िर तो ख़त्म होंगी कहीं क़ैद की हदें
यूसुफ़ को आप रौनक़-ए-ज़िंदाँ बनाइए

फिर अपने दिल में कीजिए पैदा कोई तड़प
फिर मुश्किल-ए-हयात को आसाँ बनाइए

'जौहर' असीरियों की कोई इंतिहा भी है
आज़ाद इक निज़ाम-ए-परेशाँ बनाइए