दिल को हलाक-ए-जल्वा-ए-जानाँ बनाइए
इस बुत-कदे को काबा-ए-ईमाँ बनाइए
तूफ़ान बन के उठिए जहान-ए-ख़राब में
हस्ती को इक शरारा-ए-रक़्साँ बनाइए
दौड़ाइए वो रूह कि हर ज़र्रा जाग उठे
उजड़े हुए वतन को गुलिस्ताँ बनाइए
फिर दीजिए निगाह को पैग़ाम-ए-जुस्तुजू
मंज़िल से क्यूँ नज़र को गुरेज़ाँ बनाइए
आख़िर तो ख़त्म होंगी कहीं क़ैद की हदें
यूसुफ़ को आप रौनक़-ए-ज़िंदाँ बनाइए
फिर अपने दिल में कीजिए पैदा कोई तड़प
फिर मुश्किल-ए-हयात को आसाँ बनाइए
'जौहर' असीरियों की कोई इंतिहा भी है
आज़ाद इक निज़ाम-ए-परेशाँ बनाइए
ग़ज़ल
दिल को हलाक-ए-जल्वा-ए-जानाँ बनाइए
मोहम्मद अली जौहर