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दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता | शाही शायरी
dil kis se lagaun kahin dilbar nahin milta

ग़ज़ल

दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता

रिन्द लखनवी

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दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
क्या ज़ुल्म सहूँ कोई सितमगर नहीं मिलता

ख़त ले के गया जो वो कबूतर नहीं मिलता
क्या ज़िक्र कबूतर का है इक पर नहीं मिलता

ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर नहीं मिलता

क्या ख़ाक मुदावा करें शोरीदा-सरी का
सर फोड़ने को ढूँढें तो पत्थर नहीं मिलता

गुंजलक नहीं मिटती जो तबीअत में पड़ी है
दिल तुझ से किसी तौर से दिलबर नहीं मिलता

क्या कीजिए तारीफ़ बिना गोश की उस के
आवेज़े को जिस कान के गौहर नहीं मिलता

गुम जब से हुआ हूँ मैं तिरी राह-ए-तलब में
जब ढूँढता हूँ आप को अक्सर नहीं मिलता

कुछ तालिब-ए-ज़र बुत ही नहीं ग़ौर से देखो
हक़ यूँ है कि अल्लाह भी बे-ज़र नहीं मिलता

सूरत नहीं मिलती तिरी सूरत से किसी की
गहने से किसी के तिरा ज़ेवर नहीं मिलता

आराइशें मौक़ूफ़ हुईं किस लिए ऐ जान
गौहर नहीं मिलता है कि ज़र-गर नहीं मिलता

अबरू की मोहब्बत में किसे ज़ीस्त है मंज़ूर
मर जाऊँ गला काट के ख़ंजर नहीं मिलता

रिंदान-ए-मय-आशाम नहीं जाम के पाबंद
हम ओक से पीते हैं जो साग़र नहीं मिलता

वहशत में निकल जाऊँ मैं सरहद से ज़मीं की
इस गुम्बद-ए-गर्दां का वले दर नहीं मिलता

ओ बर्क़-ए-तजल्ली तिरे कुश्ते की लहद पर
क्या लौह बने तूर का पत्थर नहीं मिलता

हाज़िर हूँ मुझे बस्ता-ए-फ़ितराक-ए-फ़रस कर
गर सैद कोई तर्क-ए-सितमगर नहीं मिलता

आशिक़ से न खींच आप को ऐ बादशह-ए-हुस्न
दरवेश से क्या झुक के तवंगर नहीं मिलता

जो ज़ख़्म को सीने के सिए टाँके जिगर को
ऐसा कोई उस्ताद रफ़ूगर नहीं मिलता

ऐ 'रिन्द' लबालब हो जो इरफ़ान की मय से
साग़र वो ब-जुज़ साक़ी-ए-कौसर नहीं मिलता