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दिल की क़िस्मत कि तिरे दिल में समो भी न सका | शाही शायरी
dil ki qismat ki tere dil mein samo bhi na saka

ग़ज़ल

दिल की क़िस्मत कि तिरे दिल में समो भी न सका

सय्यद मज़हर गिलानी

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दिल की क़िस्मत कि तिरे दिल में समो भी न सका
और ता-ज़ीस्त किसी और का हो भी न सका

ग़म-ए-पैहम ने कभी फ़ुर्सत-ए-एहसास न दी
क्या जवानी थी कि जी-भर के मैं रो भी न सका

पार भी कर न सका बहर-ए-जुनूँ से कम-बख़्त
और दिल ज़ीस्त की कश्ती को डुबो भी न सका

उम्र-भर अहद-ए-वफ़ा तिश्ना-ए-तकमील रहा
मैं उसे पा न सका वो मुझे खो भी न सका

जागने भी न दिया शौक़-ए-तसव्वुर ने कभी
और 'मज़हर' मैं कभी रात को सो भी न सका