दिल की मौजों की तड़प मेरी सदा में आए
दाएरे कर्ब के फैले तो हवा में आए
मेरे हाथों ही ने आईना दिखाया था मुझे
कितने मुश्किल थे तक़ाज़े जो दुआ में आए
हम ग़रीबी में भी मेआर-ए-सफ़र रखते हैं
गिरते पड़ते ही सही अपनी अना में आए
इन से हम शेर की तासीर बढ़ा लेते हैं
कैसे लहजे तिरे आँचल की हवा में आए
वो तो पहचान की मौहूम नज़र रखता है
हम यूँही सामने ज़ख़्मों की क़बा में आए
आख़िरी शेर की मंज़िल भी कड़ी है 'साक़िब'
सोच के कितने सफ़र ज़ेहन-ए-रसा में आए
ग़ज़ल
दिल की मौजों की तड़प मेरी सदा में आए
अासिफ़ साक़िब