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दिल की हर लर्ज़िश-ए-मुज़्तर पे नज़र रखते हैं | शाही शायरी
dil ki har larzish-e-muztar pe nazar rakhte hain

ग़ज़ल

दिल की हर लर्ज़िश-ए-मुज़्तर पे नज़र रखते हैं

फ़ानी बदायुनी

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दिल की हर लर्ज़िश-ए-मुज़्तर पे नज़र रखते हैं
वो मेरी बे-ख़बरी की भी ख़बर रखते हैं

दर्द में लुत्फ़-ए-ख़लिश कैफ़-ए-कशिश पाता हूँ
क्या वो फिर अज़्म-ए-तमाशा-ए-जिगर रखते हैं

जिस तरफ़ देख लिया फूँक दिया तूर-ए-मजाज़
ये तिरे देखने वाले वो नज़र रखते हैं

ख़ुद तग़ाफ़ुल ने दिया मुज़्दा-ए-बेदाद मुझे
अल्लाह अल्लाह मिरे नाले भी असर रखते हैं

बेबसी देख ये सौ बार किया अहद कि अब
तुझ से उम्मीद न रक्खेंगे मगर रखते हैं

है तिरे दर के सिवा कोई ठिकाना अपना
क्या कहीं तेरे उजाड़े हुए घर रखते हैं

कोई इस जब्र-ए-तमन्ना की भी हद है 'फ़ानी'
हम शब-ए-हिज्र में उम्मीद-ए-सहर रखते हैं