दिल की आग कहाँ ले जाते जलती बुझती छोड़ चले
बंजारों से डरने वालो लो हम अपनी बस्ती छोड़ चले
आगे आगे चीख़ रहा है सहरा का इक ज़र्द सफ़र
दरिया जाने साहिल जाने हम तो कश्ती छोड़ चले
मिट्टी के अम्बार के नीचे डूब गया मुस्तक़बिल भी
दीवारों ने देखा होगा बच्चे तख़्ती छोड़ चले
दुनिया रक्खे चाहे फेंके ये है पड़ी ज़म्बील-ए-सुख़न
हम ने जितनी पूँजी जोड़ी रत्ती रत्ती छोड़ चले
सारी उम्र गँवा दी 'क़ैसर' दो गज़ मिट्टी हाथ लगी
कितनी महँगी चीज़ थी दुनिया कितनी सस्ती छोड़ चले
ग़ज़ल
दिल की आग कहाँ ले जाते जलती बुझती छोड़ चले
क़ैसर-उल जाफ़री