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दिल ख़ूँ है ग़म से और जिगर यक न-शुद दो शुद | शाही शायरी
dil KHun hai gham se aur jigar yak na-shud do shud

ग़ज़ल

दिल ख़ूँ है ग़म से और जिगर यक न-शुद दो शुद

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

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दिल ख़ूँ है ग़म से और जिगर यक न-शुद दो शुद
लब ख़ुश्क हैं तो चश्म है तर यक न-शुद दो शुद

रुस्वा तो नाला कर के हुए लेकिन उस ने यार
दिल में तिरे किया न असर यक न-शुद दो शुद

अव्वल तो हम को ताक़त-ए-परवाज़ ही न थी
तिस पर बुरीदा हो गए पर यक न-शुद दो शुद

पाया न हम ने सूद मोहब्बत में यार की
उस पर भी पहुँचता है ज़रर यक न-शुद दो शुद

छिड़का मिरे जिगर पे नमक ग़ैर से रहा
पैवस्ता मिस्ल-ए-शीर-ओ-शकर यक न-शुद दो शुद

आवारा-जूँ सबा हूँ पर अब जुस्तुजू-ए-यार
रखती है मुझ को ख़ाक बसर यक न-शुद दो शुद

मुश्किल था देखना ही तिरा तिस पे रोज़-ए-वस्ल
लाई न चश्म ताब-ए-नज़र यक न-शुद दो शुद

नालाँ हम अपने अश्क के हाथों थे अब 'बक़ा'
बहने लगें हैं लख़्त-ए-जिगर यक न-शुद दो शुद