दिल के वीराने में इक फूल खिला रहता है
कोई मौसम हो मिरा ज़ख़्म हरा रहता है
शब को होगा उफ़ुक़-ए-जाँ से तिरा हुस्न तुलूअ'
ये वो ख़ुर्शीद है जो दिन को छुपा रहता है
यही दीवार-ए-जुदाई है ज़माने वालो
हर घड़ी कोई मुक़ाबिल में खड़ा रहता है
कितना चुप-चाप ही गुज़रे कोई मेरे दिल से
मुद्दतों सब्त निशान-ए-कफ़-ए-पा रहता है
सारे दर बंद हुए शहर में दीवाने पर
एक ख़्वाबों का दरीचा ही खुला रहता है
ग़ज़ल
दिल के वीराने में इक फूल खिला रहता है
शकेब जलाली