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दिल के सहरा में बड़े ज़ोर का बादल बरसा | शाही शायरी
dil ke sahra mein baDe zor ka baadal barsa

ग़ज़ल

दिल के सहरा में बड़े ज़ोर का बादल बरसा

ताब असलम

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दिल के सहरा में बड़े ज़ोर का बादल बरसा
इतनी शिद्दत से कोई रात मुझे याद आया

जिस से इक उम्र रहा दा'वा-ए-क़ुर्बत मुझ को
हाए उस ने न कभी आँख उठा कर देखा

तो मिरी मंज़िल-ए-मक़्सूद है लेकिन नापैद
मैं तिरी धुन में शब-ओ-रोज़ भटकने वाला

फैल जाता तिरे होंटों पे तबस्सुम की तरह
काश हालात का पहलू कभी हो ऐसा

कितनी शिद्दत से तिरे आरिज़-ओ-लब याद आए
जब सर-ए-शाम उफ़ुक़ पर कोई तारा चमका

अब के इस तौर से आई थी गुलिस्ताँ में बहार
दामन-ए-शाख़ में सूखा हुआ पत्ता भी न था

दास्ताँ ग़म की उसे 'ताब' सुनाते क्यूँ हो
कब रग-ए-संग से ख़ूँ का कभी धारा निकला