दिल के अफ़्साने को अफ़्साना समझने वाले
ख़ूब समझे मुझे दीवाना समझने वाले
देख कर भी न कभी जान सके हुस्न का राज़
इश्क़ को इल्म से बेगाना समझने वाले
आ तुझे ज़ब्त के इसराफ़ से आगाह करूँ
आह को दर्द का पैमाना समझने वाले
शैख़ जागीर समझता है ख़ुदाई को भी
हम ख़ुदा को भी किसी का न समझने वाले
क़ैस से दश्त में क्या ख़ूब मुलाक़ात रही
लोग मिलते नहीं रोज़ाना समझने वाले
घर को लौटे भी तो बिखरे हुए लौटे 'राहील'
ख़ुद को ख़ाक-ए-रह-ए-जानाना समझने वाले

ग़ज़ल
दिल के अफ़्साने को अफ़्साना समझने वाले
राहील फ़ारूक़