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दिल का मोआ'मला वही महशर वही रहा | शाही शायरी
dil ka moamla wahi mahshar wahi raha

ग़ज़ल

दिल का मोआ'मला वही महशर वही रहा

बलराज कोमल

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दिल का मोआ'मला वही महशर वही रहा
अब के बरस भी रात का मुंतज़िर वही रहा

नौमीद हो गए तो सभी दोस्त उठ गए
वो सैद-ए-इंतिक़ाम था दर पर वही रहा

सारा हुजूम पा-पियादा चूँ-कि दरमियाँ
सिर्फ़ एक ही सवार था रहबर वही रहा

सब लोग सच है बा-हुनर थे फिर भी कामयाब
ये कैसा इत्तिफ़ाक़ था अक्सर वही रहा

ये इर्तिक़ा का फ़ैज़ था या महज़ हादिसा
मेंडक तो फ़ील-पा हुए अज़दर वही रहा

सब को हुरूफ़-ए-इल्तिजा हम नज़्र कर चुके
दुश्मन तो मोम हो गए पत्थर वही रहा