दिल का मोआ'मला जो सुपुर्द-ए-नज़र हुआ
दुश्वार से ये मरहला दुश्वार-तर हुआ
उभरा हर इक ख़याल की तह से तिरा ख़याल
धोका तिरी सदा का हर आवाज़ पर हुआ
राहों में एक साथ ये क्यूँ जल उठे चराग़
शायद तिरा ख़याल मिरा हम-सफ़र हुआ
सिमटी तो और फैल गई दिल में मौज-ए-दर्द
फैला तो और दामन-ए-ग़म मुख़्तसर हुआ
लहरा के तेरी ज़ुल्फ़ बनी इक हसीन शाम
खुल कर तिरे लबों का तबस्सुम सहर हुआ
पहली नज़र की बात थी पहली नज़र के साथ
फिर ऐसा इत्तिफ़ाक़ कहाँ उम्र भर हुआ
दिल में जराहतों के चमन लहलहा उठे
'मुज़्तर' जब उस के शहर से अपना गुज़र हुआ
ग़ज़ल
दिल का मोआ'मला जो सुपुर्द-ए-नज़र हुआ
मुज़्तर ख़ैराबादी