EN اردو
दिल का इक इक दाग़ शम-ए-ज़ेर-ए-दामाँ हो गया | शाही शायरी
dil ka ek ik dagh sham-e-zer-e-daman ho gaya

ग़ज़ल

दिल का इक इक दाग़ शम-ए-ज़ेर-ए-दामाँ हो गया

मक़बूल नक़्श

;

दिल का इक इक दाग़ शम-ए-ज़ेर-ए-दामाँ हो गया
हम जहाँ पहुँचे वहीं जश्न-ए-चराग़ाँ हो गया

चाक-ए-दिल की बात थी चाक-ए-जिगर की बात थी
मुफ़्त में रुस्वा मिरा चाक-ए-गरेबाँ हो गया

रक़्स कर यूँ एक इक बंद-ए-अनासिर टूट जाए
ऐ जुनूँ पाबंदियों से दिल परेशाँ हो गया

किस से पूछूँ इर्तिक़ा की कौन सी मंज़िल है ये
आदमी ख़ुद आदमी का दुश्मन-ए-जाँ हो गया

छोड़िए अफ़साना-ए-इंसाँ को इंसाँ अब कहाँ
वो तो बेचारा हलाक-ए-कुफ्र-ओ-ईमाँ हो गया

फूल महरूम-ए-तबस्सुम और सबा मा'ज़ूर-ए-रक़्स
ये गुलिस्ताँ क्या हुआ ऐ 'नक़्श' ज़िंदाँ हो गया