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दिल जल्वा-गाह-ए-सूरत-ए-जानाना हो गया | शाही शायरी
dil jalwa-gah-e-surat-e-jaanana ho gaya

ग़ज़ल

दिल जल्वा-गाह-ए-सूरत-ए-जानाना हो गया

शाह नसीर

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दिल जल्वा-गाह-ए-सूरत-ए-जानाना हो गया
शीशा ये एक दम में परी-ख़ाना हो गया

शब क्यूँ कि सल्तनत न करे ताज-ए-ज़र से शम्अ
रश्क-ए-पर-ए-हुमा पर-ए-परवाना हो गया

कैफ़िय्यतों से गर्दिश-ए-चश्मपर-ए-बुताँ की दिल
शीशा कभी बना कभी पैमाना हो गया

तुग़्यानी-ए-सरिश्क से अपनी भी ब'अद-ए-क़ैस
दरिया का पाट दामन-ए-वीराना हो गया

ज़ंजीर क्यूँ न उस की क़दम-बोस हो भला
जो कोई तेरे इश्क़ में दीवाना हो गया

याँ तक किया है शोहरा-ए-आफ़ाक़ इश्क़ ने
क़िस्सा मिरा भी ख़ल्क़ में अफ़्साना हो गया

क्या रोइए ख़राबी-ए-इक़्लीम-ए-दिल को देख
आँखों के देखते ही तो क्या क्या न हो गया

साक़ी किधर फिरे है तू तन्हा ब-रंग-ए-जाम
तुझ बिन ख़राब इन दिनों मय-ख़ाना हो गया

आँखों से तुझ को याद मैं करता हूँ रोज़-ओ-शब
बे-दीद मुझ से किस लिए बेगाना हो गया

बावर नहीं तो अश्क-ए-मुसलसल को देख ले
दस्त-ए-मिज़ा में सुब्हा-ए-सद-दाना हो गया

कहते हैं उस के सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ में 'नसीर'
दिल भी मुरीद अब सिफ़त-ए-शाना हो गया