दिल ही रह-ए-तलब में न खोना पड़ा मुझे
हाथ अपनी ज़िंदगी से भी धोना पड़ा मुझे
इक दिन में हँस पड़ा था किसी के ख़याल में
ता-उम्र इतनी बात पे रोना पड़ा मुझे
इक बार उन को पाने की दिल में थी आरज़ू
सौ बार अपने आप को खोना पड़ा मुझे
बर्बाद हो गया हूँ मगर मुतमइन है दिल
शर्मिंदा-ए-करम तो न होना पड़ा मुझे
देखी गई न मुझ से जो तूफ़ाँ की बेबसी
कश्ती को अपनी आप डुबोना पड़ा मुझे
जल्वे कहाँ किसी के बिसात-ए-नज़र कहाँ
ज़र्रे में आफ़्ताब समोना पड़ा मुझे
'अख़्तर' जुनून-ए-इश्क़ के मारों को देख कर
अहल-ए-ख़िरद हँसे हैं तो रोना पड़ा मुझे
ग़ज़ल
दिल ही रह-ए-तलब में न खोना पड़ा मुझे
अख़तर मुस्लिमी