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दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके | शाही शायरी
dil har ghaDi kahta hai yun jis taur se ab ho sake

ग़ज़ल

दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके

नज़ीर अकबराबादी

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दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके
उठ और सँभल घर से निकल और पास उस चंचल के चल

देखी जो उस महबूब की हम ने झलक है कल की कल
पाई हर इक तावीज़ में अपने दिल-ए-बेकल की कल

जब नाज़ से हँस कर कहा उस ने अरे चल क्या है तू
क्या क्या पसंद आई हैं उस नाज़नीं चंचल की चल

है वो कफ़-ए-पा नर्म-तर उस की कि वक़्त-ए-हम-सरी
डाले कफ़-ए-पा-ए-सनम नर्मी वहीं मख़मल की मल

हम हैं तुम्हारे मुब्तला मुद्दत से है ये आरज़ू
बैठो हमारे पास भी ऐ जाँ कभी इक पल की पल

है दम ग़नीमत ऐ 'नज़ीर' अब मय-कदे में बैठ कर
तू आज तो मय पी मियाँ फिर देख लीजो कल की कल