EN اردو
दिल हमारा जानिब-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम आएगा | शाही शायरी
dil hamara jaanib-e-zulf-e-siyah-fam aaega

ग़ज़ल

दिल हमारा जानिब-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम आएगा

रशीद लखनवी

;

दिल हमारा जानिब-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम आएगा
ये मुसाफ़िर आज मंज़िल पर सर-ए-शाम आएगा

गो बुरा है दिल मगर रहने दिया है इस लिए
इश्क़ की ख़ूगर तबीअ'त है कभी काम आएगा

इश्क़-ए-दिल कामिल नहीं देखो अभी खोलो न ज़ुल्फ़
सैद जब शहबाज़ है क्यूँकर न तह-ए-दाम आएगा

क़ासिद-मर्ग आए या आए तुम्हारा नामा-बर
कह रहा है दिल कि कोई आज पैग़ाम आएगा

जाम ग़ोता कर के कौसर से मँगाई है शराब
मुझ को फ़रमाते हैं वो पाबंद-ए-इस्लाम आएगा

नेक नामों का हो मजमा' बज़्म हो आरास्ता
आप ख़ुश हों या ख़फ़ा हों एक बदनाम आएगा

तुम नहा लो जल्द वर्ना रश्क से मर जाऊँगा
दम में अब साया सर-ए-दीवार-ए-हम्माम आएगा

दोनों आँखें दिल-जिगर हैं इश्क़ होने में शरीक
ये तो सब अच्छे रहेंगे मुझ पर इल्ज़ाम आएगा

तर्क कर दो शाइ'री को अक़्ल रखते हो 'रशीद'
हो चुके हो पीर अब क्या तुम को ये काम आएगा