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दिल है कि ग़म-ए-दिल का अज़ा-दार नहीं है | शाही शायरी
dil hai ki gham-e-dil ka aza-dar nahin hai

ग़ज़ल

दिल है कि ग़म-ए-दिल का अज़ा-दार नहीं है

जलील ’आली’

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दिल है कि ग़म-ए-दिल का अज़ा-दार नहीं है
जाँ है कि सम-ए-ज़ीस्त से बेज़ार नहीं है

या क़द कोई उठती हुई दीवार नहीं है
या सर कोई सौदा का सज़ा-वार नहीं है

अल्फ़ाज़ के रंगों ने जो तस्वीर बनाई
ये तो मिरे जज़्बात का इज़हार नहीं है

नज़दीक भी आ झाँक के दिल में भी ज़रा देख
मल्बूस ही इंसान का मेआ'र नहीं है

निकले हो कड़ी धूप में जिस राह पे 'आली'
उस रह में कहीं साया-ए-अश्जार नहीं है