दिल है कि ग़म-ए-दिल का अज़ा-दार नहीं है
जाँ है कि सम-ए-ज़ीस्त से बेज़ार नहीं है
या क़द कोई उठती हुई दीवार नहीं है
या सर कोई सौदा का सज़ा-वार नहीं है
अल्फ़ाज़ के रंगों ने जो तस्वीर बनाई
ये तो मिरे जज़्बात का इज़हार नहीं है
नज़दीक भी आ झाँक के दिल में भी ज़रा देख
मल्बूस ही इंसान का मेआ'र नहीं है
निकले हो कड़ी धूप में जिस राह पे 'आली'
उस रह में कहीं साया-ए-अश्जार नहीं है
ग़ज़ल
दिल है कि ग़म-ए-दिल का अज़ा-दार नहीं है
जलील ’आली’