दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए
रफ़्ता रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं
अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए
मुसहफ़-ए-रुख़ है किसी का कि बयाज़-ए-हाफ़िज़
ऐसे चेहरे से कभी फ़ाल निकाली जाए
वो मुरव्वत से मिला है तो झुका दूँ गर्दन
मेरे दुश्मन का कोई वार न ख़ाली जाए
बे-नवा शहर का साया है मिरे दिल पे 'फ़राज़'
किस तरह से मिरी आशुफ़्ता-ख़याली जाए
ग़ज़ल
दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
अहमद फ़राज़