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दिल-गवारा चुभन ही मरती है | शाही शायरी
dil-gawara chubhan hi marti hai

ग़ज़ल

दिल-गवारा चुभन ही मरती है

ख़ुमार मीरज़ादा

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दिल-गवारा चुभन ही मरती है
अब तुम्हारी लगन ही मरती है

क़द्र क्या दावा-ए-अनल-हक़ की
फ़िक्र-ए-दार-ओ-रसन ही मरती है

रूह की बहस किस लिए कि यहाँ
आरज़ू-ए-बदन ही मरती है

शाम-ए-गोशा-नशीनी क्या कीजे
सुब्ह-ए-सैर-ए-चमन ही मरती है

इस कहानी में इक रिवायत से
क्यूँ कोई गुल-बदन ही मरती है