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दिल-ए-शैदा की हक़ीक़त मिरे मौला क्या है | शाही शायरी
dil-e-shaida ki haqiqat mere maula kya hai

ग़ज़ल

दिल-ए-शैदा की हक़ीक़त मिरे मौला क्या है

मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़

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दिल-ए-शैदा की हक़ीक़त मिरे मौला क्या है
जान हाज़िर है मिरी आप से अच्छा क्या है

अहमद और अहमद-ए-बे-मीम का पर्दा क्या है
अक़्ल-ए-अव्वल को भी हैरत है मुअम्मा क्या है

आप के ग़म ने तन-ए-ज़ार में छोड़ा क्या है
मलक-उल-मौत का ये मुझ से तक़ाज़ा क्या है

ऐश-ए-इमरोज़ पे ख़ुश हैं ग़म-ए-फ़र्दा क्या है
मौत आ जाए तो मर जाएँगे झगड़ा क्या है

हम तो मदहोश पड़े रहते थे मय-ख़ाने में
क्या ख़बर कातिब-ए-आमाल ने लिक्खा क्या है

आज तक शहर-ए-ख़मोशाँ का न कुछ हाल खुला
लोग क्या देखने जाते हैं तमाशा क्या है

अर्सा-ए-हश्र में है आज क़यामत की गिरफ़्त
अब बताए तो कोई नाज़िश-ए-तक़्वा क्या है

सर तो हम भी न झुकाएँगे सुबुक-सर हो कर
चर्ख़ दुश्मन है तो दुश्मन सही होता क्या है

तुम से हट कर कहीं पड़ती ही नहीं मेरी नज़र
तुम तमन्ना हो मिरी और तमन्ना क्या है

दू-बदू क्यूँ न कहूँ तुम से जो कहना है मुझे
दिल में घुट घुट के जो रह जाए वो शिकवा क्या है

गुल के दामन पे कहीं ख़ून का धब्बा न लगे
तर्ज़-ए-फ़रियाद ये ऐ बुलबुल-ए-शैदा क्या है

मुश्किलें सैंकड़ों हर गाम पे पेश आती हैं
ढूँडने वालों ने तुझ को अभी पाया क्या है

क्या बताऊँ दिल-ए-रंजूर की हालत तुम को
वो तो हर रोज़ का बीमार है अच्छा क्या है

कलिमा पढ़ता हुआ क़ब्र में उतरा हूँ मैं
मेरे मज़हब को नकीरैन ने समझा क्या है

इक न इक फ़िक्र लगी रहती है हर दम मुझ को
फ़िक्र-ए-दुनिया में पड़ा हूँ ग़म-ए-उक़्बा क्या है

बादा-नोशों के दुआ करते ही बादल उमडे
अक़्ल हैरान है ज़ाहिद की ये होता क्या है

शब-ए-मेराज की क्या शान है अल्लाह अल्लाह
आज देखे तो कोई अर्श-ए-मुअल्ला क्या है

अब के भी रौज़ा-ए-अक़्दस पे रसाई न हुई
और फिर शूमी-ए-तक़दीर का रोना क्या है

ऐ फ़लक हम तुझे ज़ालिम नहीं कहते लेकिन
ग़ौर से सुन कि सदा-ए-लब-ए-दुनिया क्या है

ग़म-ए-उल्फ़त की तवाज़ो' की जिगर है मौजूद
और मक़्दूर मेरा इस से ज़ियादा क्या है

मुर्दे जी उठते हैं जब नाम तिरा सुनते हैं
हम से पूछे कोई एजाज़-ए-मसीहा क्या है

मस्लहत ये है कि इज़हार-ए-मोहब्बत न करूँ
मौत है मेरे लिए अर्ज़-ए-तमन्ना क्या है

दिल-ए-रौशन को समझ का'बा-नशीं की मंज़िल
दैर कहते हैं किसे और कलीसा क्या है

कभी बोतल को उठाता है कभी साग़र को
नहीं मालूम कि 'रासिख़' का इरादा क्या है