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दिल-ए-नालाँ तिरी आहों में असर है कि नहीं | शाही शायरी
dil-e-nalan teri aahon mein asar hai ki nahin

ग़ज़ल

दिल-ए-नालाँ तिरी आहों में असर है कि नहीं

मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़

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दिल-ए-नालाँ तिरी आहों में असर है कि नहीं
बे-क़रारी जो इधर है वो उधर है कि नहीं

शो'ला-ए-इश्क़ जिगर तक तो भड़क उट्ठा है
कुछ ख़बर भी तुझे ऐ दीदा-ए-तर है कि नहीं

हम बताएँ तुम्हें इस शोख़ के पर्दा का सबब
देखना ये है तुम्हें ताब-ए-नज़र है कि नहीं

क़ैस ये चाक-गरेबाँ तो है वहशत की दलील
चाक-दिल है कि नहीं चाक-जिगर है कि नहीं

उस की सूरत से हूँ सन्ना-ए-अज़ल का क़ाइल
जल्वा-ए-क़ुदरत-ए-हक़ हुस्न-ए-बशर है कि नहीं

का'बा-ए-दिल पे मिरे रोज़ चढ़ाई कैसी
ऐ बुतो कुछ तुम्हें अल्लाह का डर है कि नहीं

लन-तरानी को ज़रा ग़ौर से समझो मूसा
जल्वा-ए-हश्र तुम्हें मद्द-ए-नज़र है कि नहीं

दैर में ढूँढता हूँ का'बा-नशीं को ज़ाहिद
वही जल्वा जो उधर है वो इधर है कि नहीं

क़त्ल-ए-आशिक़ तो तिरी आँख का जादा ठहरा
लब-ए-ईसा का तिरे लब में असर है कि नहीं

मेरे फूलों से भी दामन को बचाया तुम ने
इस तग़ाफ़ुल की भी कुछ तुम को ख़बर है कि नहीं

शम्अ' की नज़्र इधर जान पतंगों की हुई
वक़्फ़-ए-गुल-गीर इधर शम्अ' का सर है कि नहीं

शब को बरसे थे मिरे दीदा-ए-तर थम थम कर
सुब्ह को देखिए तो ग़ैर का घर है कि नहीं

हाथ ख़ाली न दिखाओ पए क़त्ल-ए-दुश्मन
तेग़ भूल आए तो क्या तेग़-ए-नज़र है कि नहीं

दम तो लेने दो नकीरैन थका-माँदा हूँ
रुख़ पे देखो तो मिरे गर्द-ए-सफ़र है कि नहीं

नाला-ए-दिल तो मिरा शोर-ए-क़यामत है मगर
नाज़ुकी तेरी मुझे मद्द-ए-नज़र है कि नहीं

ग़ुंचा-ए-दिल से शब-ए-ग़म ये सदा आती थी
मैं हूँ पज़मुर्दा कहीं बाद-ए-सहर है कि नहीं

आतिशीं आह का है संग-दिलों पर भी असर
तोड़ कर देख लो पत्थर में शरर है कि नहीं

तूर की आग तो बुझते ही बुझेगी यारब
तालिब-ए-दीद को अपनी भी ख़बर है कि नहीं

सब से आगे है गुनहगारों की सफ़ महशर में
क़ाबिल-ए-नाज़ मिरा दामन-ए-तर है कि नहीं

हम ने 'रासिख़' तुझे महफ़िल में बहुत याद किया
उस ने पूछा था कोई तुफ़्ता-जिगर है कि नहीं