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दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है | शाही शायरी
dil-e-na-subur ko phir wahi but-e-bewafa ki talash hai

ग़ज़ल

दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है

मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी

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दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है
ग़म-ए-इब्तिदा तो उठा चुका ग़म-ए-इंतिहा की तलाश है

किसी बे-वफ़ा का गिला भी है किसी बा-वफ़ा की तलाश है
ये फ़रेब-ए-शौक़ कि दिल को फिर किसी आश्ना की तलाश है

तिरा ग़म ही ग़म रहे उम्र-भर तिरे ग़म में ख़ुद को फ़ना करूँ
मुझे इब्तिदा-ए-शुऊर से इसी इंतिहा की तलाश है

ये वो जिंस है कि जहान में जो न बिक सके जो न मिल सके
तुझे क्यूँ वफ़ा का जुनून है तुझे क्यूँ वफ़ा की तलाश है

जो मिले भी ख़िज़्र तो अब कहूँ कि सलाम आब-ए-हयात को
न वो दिल को ज़ौक़-ए-तलब रहा न वो रहनुमा की तलाश है

दिल ना-सज़ा को ये चाहता हूँ कि चाह में कहीं डाल दूँ
उसे है गुनाह की जुस्तुजू तो मुझे सज़ा की तलाश है

नए हौसले नए वलवले मिरी जुस्तुजू में मुदाम हैं
मुझे इंतिहा-ए-तलाश में भी तो इब्तिदा की तलाश है

तिरे इस इलाज में दम नहीं तिरी बस का रोग ये ग़म नहीं
मिरे दर्द के लिए चारागर तुझे क्यूँ दवा की तलाश है

मुझे जुस्तुजू है जुनून की मुझे बे-ख़ुदी की है आरज़ू
मिरे कारवान-ए-हयात को किसी रहनुमा की तलाश है

तिरे साथ है तिरे पास है न जुदा समझ वो जुदा नहीं
ये ख़ुदी का पर्दा उठा के देख अगर हाँ ख़ुदा की तलाश है

ये है हश्र-ए-'ख़ुशतर'-ए-ना-तवाँ यहाँ नफ़्सी-नफ़्सी का है समाँ
मुझे अब हुजूम-ए-गुनाह में शह-ए-दोसरा की तलाश है