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दिल-ए-ना-मुतमइन अंदेशा-ए-बर्क़-ए-तपाँ में है | शाही शायरी
dil-e-na-mutmain andesha-e-barq-e-tapan mein hai

ग़ज़ल

दिल-ए-ना-मुतमइन अंदेशा-ए-बर्क़-ए-तपाँ में है

निहाल सेवहारवी

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दिल-ए-ना-मुतमइन अंदेशा-ए-बर्क़-ए-तपाँ में है
जो बे-ताबी क़फ़स में थी वही अब आशियाँ में है

मिरी बे-ताबी-ए-दिल की समझ में कुछ नहीं आता
ख़ुदा जाने तिरा हर्फ़-ए-तसल्ली किस ज़बाँ में है

यही अंदाज़ हैं तो ग़म नहीं कुछ बोद-ए-मंज़िल का
उमंगें जाग उठी हैं ज़िंदगी सी कारवाँ में है

उसी के राग से गूंजेंगे कल राहें मसर्रत की
ये माना आज इंसाँ मंज़िल-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ में है

कोई निस्बत नहीं मंज़िल-रसी को रह-नवर्दी से
वो लज़्ज़त कामयाबी में कहाँ जो इम्तिहाँ में है

ये तख़सीस-ए-चमन क्या इल्तिजा-ए-बाग़बाँ कैसी
बहुत ऐ हिम्मत-ए-परवाज़ गुंजाइश जहाँ में है