दिल-ए-मुज़्तर तिरी फ़ुर्क़त में बहलाया नहीं जाता
किसी पहलू से ये नादान समझाया नहीं जाता
नमक-पाशी मिरे ज़ख़्मों पे ये कह कह के करते हैं
ज़रा सी बात में यूँ अश्क भर लाया नहीं जाता
डराता क्यूँ है ऐ नासेह मोहब्बत की कशाकश से
फँसा कर दिल को इस कूचे से कतराया नहीं जाता
मिरी ज़ुल्फ़ें हटा कर रुख़ से वो कहते हैं हंस हंस कर
अँधेरी रात है ऐसे में शरमाया नहीं जाता
ग़म-ओ-आलाम ने इस दर्जा हम को कर दिया घायल
ख़ुद अपनी दास्ताँ को हम से दोहराया नहीं जाता
बड़ी इस बेकसी की मंज़िलें पुर-हौल होती हैं
किसी से जब कोई 'तसनीम' अपनाया नहीं जाता

ग़ज़ल
दिल-ए-मुज़्तर तिरी फ़ुर्क़त में बहलाया नहीं जाता
जमीला ख़ातून तस्नीम