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दिल-ए-मजरूह जब भी इक नई करवट बदलता है | शाही शायरी
dil-e-majruh jab bhi ek nai karwaT badalta hai

ग़ज़ल

दिल-ए-मजरूह जब भी इक नई करवट बदलता है

ऐन सलाम

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दिल-ए-मजरूह जब भी इक नई करवट बदलता है
गुल-ए-हर-ज़ख़्म से हँसता हुआ नश्तर निकलता है

हुआ है और न होगा सर्द दस्त-ए-जौर गुलचीं से
शरार-ए-दिल जो मौज-ए-रंग-ओ-बू बन कर उछलता है

यहाँ कुछ कम नहीं दीवानगी से होश का दा'वा
उधर सीना-सिपर हूँ मैं जिधर से तीर चलता है

मैं वो ख़ामोश बस्ती हूँ उमीदों के समुंदर में
कि जिस की ख़ामुशी की तह में इक तूफ़ान पलता है

मुक़द्दर के लिखे पर मुतमइन होने को हो जाऊँ
मगर ये दर्द रह रह कर जो पहलू में मचलता है

'सलाम' इक दिन पहुँच ही जाएँगे उन के भी दामन तक
ये शो'ले जिन की गर्मी से मिरा अंग अंग जलता है