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दिल-ए-फ़सुर्दा पे सौ बार ताज़गी आई | शाही शायरी
dil-e-fasurda pe sau bar tazgi aai

ग़ज़ल

दिल-ए-फ़सुर्दा पे सौ बार ताज़गी आई

अर्श मलसियानी

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दिल-ए-फ़सुर्दा पे सौ बार ताज़गी आई
मगर वो याद कि जा कर न फिर कभी आई

चमन में कौन है पुरसान-ए-हाल शबनम का
ग़रीब रोई तो ग़ुंचों को भी हँसी आई

अजब न था कि ग़म-ए-दिल शिकस्त खा जाता
हज़ार शुक्र तिरे लुत्फ़ में कमी आई

ज़माना हँसता है मुझ पर हज़ार बार हँसे
तुम्हारी आँख में लेकिन ये क्यूँ नमी आई

दिए जलाए उम्मीदों ने दिल के गिर्द बहुत
किसी तरफ़ से न इस घर में रौशनी आई

हज़ार दीद पे पाबंदियाँ थीं पर्दे थे
निगाह-ए-शौक़ मगर उन को देख ही आई

किसी तरह न मिटा 'अर्श' दाग़-ए-कुफ़्राना
हमारे काम न सज्दे न बंदगी आई