दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
वो आग बुझ गई लेकिन गुदाज़ बाक़ी है
नियाज़-केश भी मेरी तरह न हो कोई
उमीद मर चुकी ज़ौक-ए-नियाज़ बाक़ी है
वो इब्तिदा-ए-मोहब्बत की लज़्ज़तें वल्लाह
कि अब भी रूह में इक एहतिज़ाज़ बाक़ी है
न साज़-ए-दिल है अब 'अख़्तर' न हुस्न की मिज़राब
मगर वो फ़ितरत-ए-नग़्मा-नवाज़ बाक़ी है
ग़ज़ल
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
अख़्तर अंसारी