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दिल-ए-बरहम की ख़ातिर मुद्दआ' कुछ भी नहीं होता | शाही शायरी
dil-e-barham ki KHatir muddaa kuchh bhi nahin hota

ग़ज़ल

दिल-ए-बरहम की ख़ातिर मुद्दआ' कुछ भी नहीं होता

मनीश शुक्ला

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दिल-ए-बरहम की ख़ातिर मुद्दआ' कुछ भी नहीं होता
अजब हालत है अब शिकवा गिला कुछ भी नहीं होता

कोई सूरत उभरती है न मैं मिस्मार होता हूँ
मैं वो पत्थर कि जिस का फ़ैसला कुछ भी नहीं होता

किसी को साथ ले लेना किसी के साथ हो लेना
फ़क़ीरों के लिए अच्छा बुरा कुछ भी नहीं होता

कभी चलना मिरे आगे कभी रहना मिरे पीछे
रह-ए-उल्फ़त में छोटा या बड़ा कुछ भी नहीं होता

कभी दिल में मिरे तेरे सिवा हर बात होती है
कभी दिल में मिरे तेरे सिवा कुछ भी नहीं होता

वही टूटी हुई कश्ती वही पागल हवाएँ हैं
हमारे साथ दुनिया में नया कुछ भी नहीं होता

ये सौदा है निगाहों का तिजारत दिल की है लेकिन
मोहब्बत में ख़सारा फ़ाएदा कुछ भी नहीं होता

कभी दो चार क़दमों का सफ़र तय हो नहीं पाता
कभी मीलों से लम्बा फ़ासला कुछ भी नहीं होता

फ़क़त किरदार का मारा हुआ है हर बशर वर्ना
कोई इंसान अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं होता

फ़लक पर ही सितारों का कोई उन्वान होता है
किसी टूटे सितारे का पता कुछ भी नहीं होता

भले ख़्वाहिश करूँ तेरी किसी भी शक्ल में लेकिन
मिरा मक़्सद परस्तिश के सिवा कुछ भी नहीं होता

अगर देखूँ तो ख़ामी ही दिखाई दे हर इक शय में
अगर सोचूँ तो ख़ुद से बद-नुमा कुछ भी नहीं होता

ब-ज़ाहिर उम्र-भर यूँ तो हज़ारों काम करते हैं
हक़ीक़त में मगर हम ने किया कुछ भी नहीं होता