दिल-ए-आज़ुर्दा को बहलाए हुए हैं हम लोग
कितने ख़्वाबों की क़सम खाए हुए हैं हम लोग
एक आलम के हरीफ़ एक ज़माने के नक़ीब
जैसे तारीख़ के दोहराए हुए हैं हम लोग
एक मुद्दत हुई हम ढूँढ रहे हैं ख़ुद को
अपनी आवाज़ के भटकाए हुए हैं हम लोग
जिस के शो'लों से नुमू पाएँगे कुछ फूल नए
आग सीने में वो दहकाए हुए हैं हम लोग
जिन से बेदार हुआ लज़्ज़त-ए-आज़ार का ज़ौक़
चोटें ऐसी भी कई खाए हुए हैं हम लोग
एक गुत्थी जो सुलझ कर भी न सुलझी ज़िन्हार
उस को सुलझा के भी उलझाए हुए हैं हम लोग
होश में रह के भी लाज़िम है कि मदहोश रहें
राज़ आँखों का तिरी पाए हुए हैं हम लोग
गर्दिश-ए-वक़्त कोई और ठिकाना बतला
महफ़िल-ए-दोस्त से उकताए हुए हैं हम लोग
आँच आई न कड़ी धूप में लेकिन 'हुर्मत'
चाँदनी रातों के सुनो लाए हुए हैं हम लोग
ग़ज़ल
दिल-ए-आज़ुर्दा को बहलाए हुए हैं हम लोग
हुरमतुल इकराम