EN اردو
दिल-ए-आज़ादा-रौ में वो तमन्ना थी बयाबाँ की | शाही शायरी
dil-e-azada-rau mein wo tamanna thi bayaban ki

ग़ज़ल

दिल-ए-आज़ादा-रौ में वो तमन्ना थी बयाबाँ की

जोश मलीहाबादी

;

दिल-ए-आज़ादा-रौ में वो तमन्ना थी बयाबाँ की
क़दम रखते ही शक़ होने लगी दीवार ज़िंदाँ की

ख़ुदा की रहमतें ऐ मुतरिब-ए-रंगीं-नवा तुझ पर
कि हर काँटे में तू ने रूह दौड़ा दी गुलिस्ताँ की

ये साबित कर दिया तुझ को बना कर दस्त-ए-क़ुदरत ने
कि हो सकती हैं इतनी ख़ूबियाँ सूरत में इंसाँ की

नसीम-ए-सुब्ह ठंडी साँस भरती है मज़ारों पर
उदासी मुँह-अँधेरे देखिए गोर-ए-ग़रीबाँ की

ये आलम क्या है इक मजमूआ' है नाचीज़ ज़र्रों का
ये दुनिया क्या है इक तरकीब अज्ज़ा-ए-परेशाँ की

हवाओं के वो झोंके वो खुले मैदान की सर्दी
वो लहरें चाँद से रुख़्सार पर ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की

हमारी ज़िंदगी क्या सिलसिला इक दिल धड़कने का
हमारी मौत क्या जुम्बिश है इक जज़्बात-ए-पिन्हाँ की

बना देंगी यक़ीं है 'जोश' मर्द-ए-बा-ख़ुदा इक दिन
तपिश-अंदोज़ियाँ सीने में बर्क़-ए-सोज़-ए-पिन्हाँ की