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दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर | शाही शायरी
dil diya hai humne bhi wo mah-e-kaamil dekh kar

ग़ज़ल

दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर

शेर सिंह नाज़ देहलवी

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दिल दिया है हम ने भी वो माह-ए-कामिल देख कर
ज़र्द हो जाती है जिस को शम-ए-महफ़िल देख कर

तेरे आरिज़ पे ये नुक़्ता भी है कितना इंतिख़ाब
हो गया रौशन तिरे रुख़्सार का तिल देख कर

क़त्ल करना बे-गुनाहों का कोई आसान है
ख़ुश्क क़ातिल का लहू है ख़ून-ए-बिस्मिल देख कर

बल्लियों फ़र्त-ए-मसर्रत से उछल जाता है दिल
बहर-ए-ग़म में दूर से दामान-ए-साहिल देख कर

आईने ने कर दिया यकताई का दावा ग़लत
नक़्श-ए-हैरत बन गए अपना मुक़ाबिल देख कर

देख तो लें दिल में तेरे घर भी कर सकते हैं हम
दिल तो हम देंगे तुझे लेकिन तिरा दिल देख कर

देखिए राह-ए-अदम में और पेश आता है क्या
होश पर्रां हो रहे हैं पहली मंज़िल देख कर

आरज़ू-ए-हूर क्या हो 'नाज़' दिल दे कर उन्हें
शम्अ पर क्या आँख डालें माह-ए-कामिल देख कर