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दिल दश्त है वफ़ूर-ए-तमन्ना ग़ुबार है | शाही शायरी
dil dasht hai wafur-e-tamanna ghubar hai

ग़ज़ल

दिल दश्त है वफ़ूर-ए-तमन्ना ग़ुबार है

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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दिल दश्त है वफ़ूर-ए-तमन्ना ग़ुबार है
ऐ अब्र-ए-नौ-उमीद तिरा इंतिज़ार है

फिर उस्तुवार राब्ता-ए-संग-ओ-सर हुआ
फिर इन दिनों जुनूँ को हवा साज़गार है

जाँ-दादगी की रस्म जगाओ कि आज-कल
फिर मुल्तफ़ित हवा-ए-सर-ए-रह-गुज़ार है

हर निकहत-ए-ख़याल असीर-ए-हवा हुई
हर मौज-ए-नूर कम-निगही की शिकार है

रौशन-ज़मीर तीरा-नसीबी ख़ुदा की शान
इतनी सी अब हिकायत लैल-ओ-नहार है

हाँ ऐ हवा-ए-दश्त इधर शहर में भी आ
महबूस कब से निकहत-ए-गेसू-ए-यार है

कहिए तो किस तरह जो न कहिए तो किस तरह
अर्ज़-ए-सुख़न में लफ़्ज़ भी बे-ए'तिबार है

लब-बस्ता दिल-ए-कुशादा चमन में गुज़ारिए
ये ग़ुन्चग़ी की रस्म गुलों का शिआ'र है

'बाक़र' ग़ज़ल में रम्ज़-ओ-किनाया बजा मगर
ये एहतियात हर्फ़-ए-तमन्ना पे बार है