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दिल छोड़ के हर राहगुज़र ढूँढ रहा हूँ | शाही शायरी
dil chhoD ke har rahguzar DhunDh raha hun

ग़ज़ल

दिल छोड़ के हर राहगुज़र ढूँढ रहा हूँ

रहमत इलाही बर्क़ आज़मी

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दिल छोड़ के हर राहगुज़र ढूँढ रहा हूँ
बैठे हैं कहाँ वो मैं किधर ढूँढ रहा हूँ

वो पेश-ए-नज़र हैं तो नज़र क्यूँ नहीं आते
क्या मेरा क़ुसूर इस में अगर ढूँढ रहा हूँ

बारीक-निगारी की तमन्ना तो है लेकिन
मिलता नहीं मज़मून-ए-कमर ढूँढ रहा हूँ

फूकूँगा नशेमन की तरह अपने उसे भी
इस वास्ते सय्याद का घर ढूँढ रहा हूँ

कहते हैं जिसे उर्फ़ में सब सुब्ह-ए-बहाराँ
उस शाम-ए-जुदाई की सहर ढूँढ रहा हूँ

जमता ही नहीं नोक-ए-मिज़ा पर कोई आँसू
काँटे पे तुले जो वो गुहर ढूँढ रहा हूँ

ये जान के उस बुत का है पत्थर का कलेजा
ऐ 'बर्क़' मैं लोहे का जिगर ढूँढ रहा हूँ