दिल छोड़ के हर राहगुज़र ढूँढ रहा हूँ 
बैठे हैं कहाँ वो मैं किधर ढूँढ रहा हूँ 
वो पेश-ए-नज़र हैं तो नज़र क्यूँ नहीं आते 
क्या मेरा क़ुसूर इस में अगर ढूँढ रहा हूँ 
बारीक-निगारी की तमन्ना तो है लेकिन 
मिलता नहीं मज़मून-ए-कमर ढूँढ रहा हूँ 
फूकूँगा नशेमन की तरह अपने उसे भी 
इस वास्ते सय्याद का घर ढूँढ रहा हूँ 
कहते हैं जिसे उर्फ़ में सब सुब्ह-ए-बहाराँ 
उस शाम-ए-जुदाई की सहर ढूँढ रहा हूँ 
जमता ही नहीं नोक-ए-मिज़ा पर कोई आँसू 
काँटे पे तुले जो वो गुहर ढूँढ रहा हूँ 
ये जान के उस बुत का है पत्थर का कलेजा 
ऐ 'बर्क़' मैं लोहे का जिगर ढूँढ रहा हूँ
        ग़ज़ल
दिल छोड़ के हर राहगुज़र ढूँढ रहा हूँ
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी

